Thursday 29 March 2018

(10) ग़ज़ल


अपनी यादें तु ले के जा पगली
रात दिन अब न तू सता पगली

इश्क़ अपना तो है दिया जैसा
ये ज़माना  तो है हवा पगली

मुफ़लिसी ने मुझे दिखाया है
झूठी दुनिया का आइना पगली

ये मुहब्बत कोई मज़ाक नहीं
इम्तिहाँ की है इन्तेहा  पगली

हर कदम सोच सोच कर रखना
रास्ता है नया नया पगली

भूल बैठा हूँ सब मुहब्बत में
नाम मेरा मुझे बता पगली

काँच की तरह जिनको तोड़ा था
अब वो सपने उठा के ला पगली

इश्क़ करने का गर इरादा है
ज़िंदगी   खाक़ में मिला पगली
#ज्ञानेन्द्र पाठक

(9) ग़ज़ल


उसकी ही रहमत के बल पर हो गया
एक क़तरा  जो समन्दर हो गया

हाथ तेरा जिसके सर पर हो गया
औज पर उसका मुक़द्दर हो गया

अब बग़ावत हम पे लाज़िम हो गयी
अब तो पानी सर से ऊपर हो गया

ये सियासत है या कोई चाल है
क्यूँ फ़िदा  मुझ पर सितमगर हो गया

अश्क़ तेरे घर में माँओं के गिरे
हर तरफ़ मातम का मन्ज़र हो गया

जूँ न रेंगी क्यूँ तुम्हारे कान पर
तू भी जुमलों का सिकन्दर हो गया

साफगोई उसपे भारी पड़ गयी
अबतो 'पाठक' घर से बेघर हो गया

#ज्ञानेन्द्र'पाठक'

Wednesday 28 March 2018

(8) कविता

कल जब मैं छत पर गया
अचानक मेरी नज़र
आम के एक छोटे से पेड़ पर पड़ी
सर पर बौर का मुकुट पहने 
वो
बिल्कुल एक नन्हा राजकुमार लग रहा था
बहुत खुश
बहुत आनंदित
आसपास के आम के पेड़ों को देखकर 
उनको मुँह चिढ़ाता
क्योंकि 
उनके पास अबकी मुकुट जो नहीं थे
उसको और पेड़
किसी ग़रीब के बच्चे की तरह
श्री विहीन 
उदास
और
दरिद्र 
लग रहे थे
वो इठलाता
बलखाता
चंचलता से भरा 
उन पेड़ों की पीड़ा को कुरेदता
जैसे कोई किसी के पुराने जख्मों को कुरेदता है
पर उसके इस अल्हड़ बचपने को अनदेखा कर
वो पेड़ अपनी मस्ती में मस्त
जैसे कोई साधु 
किसी दुर्जन व्यक्ति की 
दुष्टता को देख कर भी 
अनदेखा कर देता है
वैसे ही 
और पेड़ अपने उस नन्हे साथी की सारी 
भूलों
गलतियों 
और
शरारतों को 
देखकर भी 
अनदेखा कर दे रहे थे
वो शायद अपना 
पिछला साल
भूल गया था
जब उसके पास मुकुट नहीं था
खूब सुबक-सुबक कर रो
रहा था 
यही नन्हा पेड़
तब इन्हीं साथियों ने 
संभाला था इसे
तब इन साथियों ने ही 
इसे समझाया था
बताया था 
कि 
सुख-दुःख
रूप-रंग
धन-दौलत 
धूप और साये की तरह 
आते जाते रहते हैं
जब तुम दुःख में हो 
तो ज्यादा मत परेशान होना
और सुख में 
ज्यादा न इतराना
क्या हुआ
अगर 
तुम्हारे पास मुकुट नहीं है
कोई बात नहीं
हमारे पास तो है
अपना ही समझना
हम और तुम 
कोई अलग हैं क्या?
और 
सभी पेड़ कहने लगे थे
हे ईश्वर!
अगले बरस हम सबको 
भले ही मुकुट न देना
लेकिन
हम सब इसे ऐसे 
सुबकते 
रोते-बिलखते
नहीं देख सकते
इसको 
एक अच्छा सा मुकुट देना
शायद 
उन सब की 
दुआओं 
के असर पाने से ही 
इस बार
वो राजकुमार बना है?
लेकिन 
ये नन्हा राजकुमार
शायद
इन बातों को
भूल चुका है?
या 
अपने मुकुट के मद में चूर 
किसी मदान्ध हाथी की तरह
अपने साथियों की भावनाओं 
को अपने पैरों तले कुचलता हुआ आगे बढ़ा जा रहा है
लगता है
बौर आने पर सचमुच बौरा गया है मुआ
बौर की बौराहट उसके सर चढ़कर बोल रही है
दम्भी बसन्त का आगमन हो गया है
काश! इसे अपना अतीत याद आ जाता......
काश! इसे अपना अतीत याद आ जाता....
#ज्ञानेन्द्र'पाठक'

(7) हम्द (ग़ज़ल)


जिसने साँसें की अता,तू ही है या रब
लायके हम्दो सना , तू ही है या रब

जिसने दुनिया को रचा,तू ही है या रब
जिसने हम सब को गढ़ा, तू ही है या रब

माँ के झुर्रीदार चेहरे के बगल से
नूर बनकर झाँकता, तू ही है या रब

ज़ुल्म सहकर जो नहीं कुछ बोल पाते
उनकी चुप्पी की सदा, तू ही है या रब

अपने बच्चों की ख़ुशी को देख करके
माँ जो पढ़ती है दुआ, तू ही है या रब

सूर का प्यारा किशन तुलसी का है राम
सत्य चारों धाम का, तू ही है या रब

रूह बनकर रहबरी करता जो सबकी
सबके अन्तर्मन बसा, तू ही है या रब

वेद मन्त्रों की ऋचाओं में बसा तू
इस जगत की आत्मा, तू ही है या रब

तू है कबिरा की परमसत्ता का नायक
नूर इस कौनैन का , तू ही है या रब

हर क़दम धोखा दिया दुनिया ने 'पाठक'
मेरा सच्चा आसरा, तू ही है या रब
ज्ञानेन्द्र'पाठक'

(6) ग़ज़ल


आईने जब से आजकल निकले
सब यहाँ सूरतें बदल निकले

आपकी याद रोज़ आती है
छोड़ तन्हा कहाँ को चल निकले

आ गया मैं तुम्हारी महफ़िल में
अब तो मुश्किल का कोई हल निकले

क्या पता कौन कब कहाँ आखिर
आपकी जिंदगी बदल निकले

चाँद तारे हसीं नज़ारे सब
तेरी यादों के साथ चल निकले

क्या बता पायेगा यहाँ कोई
कैसे धरती से यार जल निकले

नैन तेरे हसीन है इतने
जैसे दरिया में दो कँवल निकले

तुम सताओ मुझे सुनो इतना
कोई अच्छी सी इक ग़ज़ल निकले

✒ ज्ञानेन्द्र पाठक

(5) ग़ज़ल


दिखावा हर तरफ़ आसूदगी का
कहीं मंज़र नहीं है बेहतरी का

हो शामिल दर्द इसमें हर किसी का
तभी मकसद हो पूरा शाइरी का

हमारी गुल्लकें खाली पड़ीं हैं
भला क्या दोष है कूजागरी का

दग़ा अपना लहू देने लगा है
भरोसा अब करें कैसे किसी का

वो हर लम्हा है भारी इक सदी पर
जो ख़र्चा साथ तेरे,ज़िन्दगी का

वो धागा नाप तो ले के गया पर
रहा आबाद ग़म अंगुस्तरी का

मुसलसल याद आता है ख़ुदा बस
यही है फ़ायदा फ़ाकाकशी का

बतायेंगे तुम्हें फुरसत में 'पाठक'
मिला मुझको सिला क्या आशिक़ी का

✒ज्ञानेन्द्र'पाठक

Tuesday 27 March 2018

(4) ग़ज़ल


शह्र आकर ये बात जानी है
ज़िन्दगी गाँव की सुहानी है

बूँद हूँ ओस की मगर मुझसे
क्यूँ समन्दर ने हार मानी है

इक समंदर से मिल के खो जाना
हर नदी की यही कहानी है

राहे उल्फ़त से तुम नहीं डिगना
इक यही अम्न की निशानी है

दर्द ने लम्स से कहा यारा
चोट दिल पर बहुत पुरानी है

या ख़ुदा   बख़्स दे मुझे दौलत
इक ग़ज़ल की किताब लानी है

इश्क़ सीरत से तुम करो 'पाठक'
रंग फ़ानी है रूप फ़ानी है
#ज्ञानेन्द्र पाठक

(10) ग़ज़ल

अपनी यादें तु ले के जा पगली रात दिन अब न तू सता पगली इश्क़ अपना तो है दिया जैसा ये ज़माना  तो है हवा पगली मुफ़लिसी ने मुझे दिखाया है...